1857 की क्राँति में त्योंथरांचल की रही महत्वपूर्ण भूमिका -

1857 की क्राँति में त्योंथरांचल  की रही महत्वपूर्ण भूमिका -
 
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  File photo

रामलखन गुप्त,पत्रकार -

सन् 1857 गदर के दौरान रीवा राज्य का त्योथर परगना उत्तर प्रदेश के प्रयागराज, मिर्जापुर एवं बांँदा (वर्तमान चित्रकूट) की सीमा से लगा होने के कारण अंग्रेजों के विरुद्ध बगावती तेवर में कभी पीछे नहीं रहा। 1857 की स्वाधीनता क्रांति ने अंग्रेजों को देश की आजादी हेतु भारतीयों की एकजुटता का आभास करा दिया था। उस संग्राम में इस त्योंथर अंचल के ठाकुर जगमोहन सिंह (रायपुर सनौरी) एवं रणजीत राय दीक्षित (डभौरा) ने अपनी कुर्बानी देकर स्वतंत्रता की बलिवेदी पर मां भारती का मान बढ़ाया था। हालांकि इन शहीदों की स्मृति में अभी तक कोई स्थाई स्मारक यहांँ नहीं बना है। यहाँ सन 1857 की क्रांति के बारे में अध्ययन करें तो उस समय रीवा राज्य की प्रशासनिक बागडोर महाराजा रघुराज सिंह के हाथों में थी। उन्हें 1854 ई. में राजगद्दी पर बैठाया गया था। उस समय देश में अंग्रेज लॉर्ड डलहौजी के वापस इंग्लैंड चले जाने के बाद फरवरी 1856 में लॉर्ड कैनिंग गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। लॉर्ड डलहौजी की विलय नीति से भारतीय रियासतों में असंतोष व्याप्त था, जो उसके जाते ही फूटने को आतुर हो उठा। इस तरह 1856 में ही क्रांति की अंदर ही अंदर तैयारी होने लगी थी। रीवा रियासत भी इस क्रांति की लहर से अछूती नही रही। रीवा के तत्कालीन महाराजा सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने रहे और दिसंम्बर 1856 में अपनी जगन्नाथ पुरी की धार्मिक यात्रा शुरू कर दी। महाराजा की सुरक्षा के लिए अंग्रेज सरकार (जो एक संधि के कारण रीवा राज्य पर अपनी निगरानी रखते थे) ने भी विलोबी आसवर्न को जो मद्रास सेना में लेफ्टिनेंट था नियुक्त कर दिया गया। महाराजा रघुराज सिंह जगन्नाथपुरी पहुंचे ही थे की इधर बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे ने क्रांँति का उद्घोष कर दिया। अंग्रेज सरकार ने महाराजा को रीवा लौटने के लिए कहा, अतः महाराजा 1857 में रीवा वापस आ गए। इस समय तक चारों तरफ क्राँंति फैल गई थी, इसलिए महाराज की सुरक्षा में आए आसवर्न  को रीवा में ही रुकना पड़ा। जुलाई 1857 को रीवा महाराज रघुराज सिंह को अंग्रेजों का एक पत्र प्राप्त हुआ जिसमें लेफ्टिनेंट विलोबी आसवर्न की नियुक्ति पोलिटिकल एजेंट के रूप में कर दी गई। एक प्रकार से देखा जाए तो रीवा राज्य पर निगरानी बनाए रखने के लिए यह अंग्रेज प्रतिनिधि रीवा में ही ठहरा रहा। रीवा का वर्तमान मार्तंड हायर सेकेंडरी स्कूल का मुख्य भवन ही उस समय आसवर्न का बंगला था। इतिहास कार अख्तर हुसैन निजामी के अनुसार अगस्त के अंतिम दिनों में कुंॅवर सिंह जो कि 1857 क्रांति के प्रमुख नायक थे उनके विद्रोहियों के साथ रीवा आने की खबर सुनाई पड़ी। जगदीशपुर (बिहार) के महान क्राँंतिकारी नेता कुॅवर सिंह महाराजा रघुराज सिंह के निकट संबंधी थे। (शंभू दयाल गुरु के अनुसार) वे रीवा से सहायता की आश लगाए थे और उन्हें विश्वास था कि महाराजा उनकी मदद इस क्राँंति के लिए करेंगे। 9 सितंबर को आसवर्न ने सूचित किया कि कुॅवर सिंह ने 5000 सैनिकों, रामगढ़ बटालियन और 600 दीनापुर विद्रोहियों के साथ त्योंथर क्षेत्र के कटरा घाट (पहाड़) पार करके रीवा में प्रवेश कर लिया है। यह सूचना मिलते ही रीवा महाराजा ने अंग्रेज अधिकारी आसवर्न को रीवा से चले जाने की सलाह दी, क्योंकि उसकी रक्षा कर का उन्हें भरोसा नहीं था। परंतु आसवर्न स्थिति स्पष्ट होने तक रीवा से जाना नहीं चाहता था, अतः वह रीवा में ही डटा रहा। महाराजा रघुराज सिंह दुविधा में पड़ गए थे क्योंकि उनके सशक्त सरदार उन्हें क्रांँतिकारियों के साथ मिलने पर विवश किए हुए थे, परंतु महाराज रघुराज सिंह ने काँति से दूर रहने का ही फैसला किया। दरबार की ओर से मऊगंज (मऊ) के तहसीलदार ईश्वरजीत सिंह ने क्रांँतिकारी कुॅवर सिंह का रास्ता रोक दिया।

 महाराज रघुराज सिंह ने कॅवुर सिंह को रीवा रियासत छोड़ देने के लिए लिखा। रघुराज सिंह ने उन्हें धमकी भी दी कि यदि उन्होंने रीवा क्षेत्र नहीं छोड़ा तो उन्हें दंडित किया जाएगा।                                                          रीवा राजा के विरोध के कारण उनके क्रांॅंति दल को बांँदा की ओर जाने के लिए विवश किया गया। उस समय डभौरा के रणजीत राय दीक्षित जो कि विद्रोहियों के पक्षधर थे तथा बांँदा के विद्रोहियों को शरण दे रहे थे उन्होंने कॅुंवर सिंह कि विद्रोही सेना का स्वागत किया। कँुवर सिंह तो अपने दल बल के साथ रीवा से वापस चले गए किंन्तु रीवा राज्य में क्रांँति का बिगुल फूंक दिया।  अंग्रेजों के प्रभाव में बघेलखंड में 1857 के विद्रोह को दबाने के लिए महाराजा रघुराज सिंह ने अपनी सेना के 2000 जवान अँंग्रेजी सरकार को अर्पित करने की इच्छा प्रकट की। अंग्रेजी सरकार ने धन्यवाद पूर्वक यह सैन्य सहायता स्वीकार की थी। इस सेना का कमांड कर्नल हाईट के नेतृत्व में रखा गया, जिसने इस क्षेत्र में राजद्रोहियों को आने से रोका। फिर भी क्रांँतिकारी कुंवर सिंह ने इस राज्य में जो क्रांँति का बिगुल फूंका था उसका आंशिक प्रभाव तिलंगा ब्राह्मण पर पड़ा। तिलंगा इस राज्य में संभवत एक तेलुगु सिपाही था। अंग्रेजों की ओर से रीवा में नियुक्त पोलिटिकल एजेंट आसवर्न ने तिलंगा को गिरफ्तार कर लिया। शीघ्र ही उसे फाँंसी देने की अफवाह यत्र तत्र फैल गई। इस अफवाह ने यहाँ की क्रांति में चिंगारी का काम किया। बघेल सरदार लाल रणमत सिंह, श्यामशाह सिंह, धीर सिंह व पंजाब सिंह ने तिलंगा को बचाने के लिए उसकी गिरफ्तारी का खुलकर विरोध किया। इन्होंने आसवर्न के बंगले को घेर लिया। आसवर्न बंगले से भाग गया और महाराजा रघुराज सिंह पर दबाव डाला की इन विद्रोही सरदारों को नौकरी से बर्खास्त कर दिया जाए। वह उन्हें बर्खास्त कराकर राज्य से निकलवाने का आदेश जारी कराने में सफल रहा।                  इस क्राँंति के समय ठाकुर रणमत सिंह के पूर्वजों को प्राप्त जागीर जिसे पन्ना राजा ने हड़प लिया था एक विवाद खड़ा हुआ।  फलतः रीवा व पन्ना के बीच सीमा संबंधी झगडा शुरू हो गया। इस विवाद को निपटाने के लिए रणमत सिंह ने घटबेलवा के युद्ध में पन्ना राजा के सेनापति केसरी सिंह बुंदेला को खण्ड्ग के एक ही बार से दो टूक कर दिया। इस युद्ध में रणमत सिंह बुरी तरह घायल हो गए किंतु वे सुरक्षित बच गए और वे अपने सैनिकों के साथ अंग्रेजों की नौगांव छावनी पर धावा बोल दिया। अंग्रेज छावनी पर आक्रमण के बाद रणमत सिंह अपने साथियों के साथ चित्रकूट होते हुए बांँदा की ओर चले गए। तदन्तर उन्होंने अपने साथियों के साथ कोठी में प्रवेश किया। अंग्रेजों के बढ़ते दबाव के कारण  कोठी से के खखरा जंगल होते हुए डभौरा पहुंच गए। डभौरा के क्राँंतिकारी रणजीत राय दीक्षित ने रणमत सिंह को शरण दी और अंग्रेजी फौज के चढ़ आने पर उनका बहादुरी से सामना किया और अपने प्राणों को उत्सर्ग कर दिया। वे रणमत सिंह की सुरक्षा में अंतिम दम तक अंग्रेजों का प्रतिकार करते रहे। रणमज सिंह इस दौरान अंग्रेजों से निरंतर लड़ाई लड़ते रहे। क्योंटी की गढ़ी में रणमत सिंह के होने की खबर पर अंग्रेज कमांडर अपनी सैन्य टुकड़ी एवं बघेल राज्य की सेना के साथ क्योंटी को घेर लिया। युद्ध के दौरान अंग्रेज कमांडर मारा गया।                                                          1857 कीे इस क्रांँति में जहाँं त्योंथर अंचल डभौरा के रणजीत राय दीक्षित की भूमिका महत्वपूर्ण रही। अंग्रेजी सेना के विरुद्ध उन्होंने खुलकर लड़ाई लड़ी। त्योंथर पश्चिमी अंचल में डभौरा के समीप मुड़कटा नामक एक स्थान है जिसके बारे में कहा जाता है कि अंग्रेजों से युद्ध करते समय रणजीत राय दीक्षित ने अपने दोनों हाथों में तलवार लेकर कई अंग्रेज सैनिकों का सिर काट लिया था 

 इसलिए इस स्थान को मुडकटा कहा जाता है। त्योंथर पूर्वी अंचल में स्थित रायपुर (सोनौरी) में 1857 के अमर शहीद ठाकुर जगमोहन सिंह की समाधि बनी हुई है। ठाकुर जगमोहन सिंह के बारे में रायपुर सोनौरी के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भैरवदीन मिश्र ने एक लेख ’’स्वतंत्रता आंदोलन में  विंध्य क्षेत्र का योगदान’’  लिखा था जिसका प्रकाशन मेरे द्वारा संपादित हिंद चेतना पत्रिका (चाकघाट) में वर्ष 2003 में प्रकाशित किया गया था।  ठाकुर राणमत सिंह की सेना ने 1857 की क्राँति में अंग्रेजों से युद्ध किया था। युद्ध के दौरान ओसवर्न के सैनिकों के पांँव उखड़ गए थे। दूसरी ओर चोरहटा के ठाकुर रणजीत सिंह की फौज अंग्रेज सेना की एक टुकड़ी को भुट्टे की तरह काटकर चोरहटा में बने एक विशाल कुएं में डाल कर पाट दिया था । वहाँ से अंग्रेज कर्नल वैरिंग अपने कुछ सैनिकों के साथ प्राण बचा हुआ भाग निकला था किंन्तु बाद में बदले की भावना से अंग्रेज सरकार की क्रूरता के कारण दूसरी बार कर्नल बैरिंग ग्राम रायपुर सनौरी में अपना मोर्चा बनाया। मोर्चा में रायपुर के ठाकुर जगमोहन सिंह  एवं शिवदीन वीरगति को प्राप्त हुए। एक लोकगीत यहाँं प्रचलित हैः-         
कर्नलवैरिंग ने घूमन और रायपुर में डेरा डाला, तब तोप चर्ख पर चढ़ी युद्ध का हुआ उजाला।   शंकरपुर के मोर्चे से गढ़ी   गिराइर्, वेणुवंश कुलदीप रायपुर  ने गति पाई।।उसने पेड़ों पर उल्टा टांग कर गोली मारी, आठ  वर्ष  के ऊपर की आबादी सारी।     रायपुर फिर उजाड़ कर आग लगाइर्, विंध्य मेंखला 30 बरस तक बागी कहलाइ।।
      त्योंथर तहसील के  ग्राम पनासी में भी अंग्रेजों से लड़ाई होने का वर्णन मिलता है। यह युद्ध अवध के नबाब की ओर से यहांँ लड़ा गया था। जिसमें फ्रांसीसी कमांडर ने भाग लिया था। यहाँं के ग्राम बरुआ और भूगा  में आज ही शहीदों की छतरी बनी हुई है। 1857 की क्रांति में यहाँ के लोगों ने अंग्रेजी सेना से लडते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी। रायपुर सोनौरी के ठाकुर जगमोहन सिंह एवं डभौरा के रणजीतराय दीक्षित की शहादत को याद रखने के लिए उनके शहादत स्थल को विकसित किया जाना चाहिए।