BREAKING : यादव से ‘पंडित’ बना मुलायम का वो खासमखास विधायक, जिसे बीच सड़क पर घेरकर गोली मारी गई

यादव से ‘पंडित’ बना मुलायम का वो खासमखास विधायक
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यादव से ‘पंडित’ बना मुलायम का वो खासमखास विधायक, जिसे बीच सड़क पर घेरकर गोली मारी गई

वह एक दिन पहले ही बच्चों को लखनऊ में हॉस्टल छोड़कर लौटे थे। शाम को फोन आया था कि घर पहुंचने में देर होगी, तब तक मंदिर में पूजा कर लेना। लेकिन उस फोन कॉल के 10 मिनट के बाद ही लैंडलाइन पर आए फोन ने सबकुछ छीन लिया। यह बातें विजमा यादव ने कुछ साल पहले दिवंगत पति जवाहर यादव की पुण्यतिथि पर कहीं थीं। पति की हत्या से पहले कभी घूंघट से नहीं निकलीं विजमा यादव, जिनकी शादी के 6 साल के बाद ही जीवन का रंग सफेद हो गया। पति जवाहर यादव, जिसने अपने दम पर बाहुबल और राजनीति की सीढ़ियां नापी थी। जवाहर का नाम मुलायम सिंह यादव की जुबान पर रहता था, जिसके सीने में बीच सड़क गोली उतारकर शांत कर दिया गया। और यूपी की राजनीति में खलबली मच गई।

कहते हैं जाति कभी नहीं जाती। खासकर बात उत्तर प्रदेश के चुनाव की करें तो जाति का फैक्टर किसी भी अन्य बात से कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह किस्सा है जवाहर का। जवाहर, जिसके नाम के आगे उसकी जाति को दर्शाता हुआ यादव लगा हुआ है। लेकिन जिंदगी में अपने परिचितों के बीच पंडित का संबोधन ही पाया। देवी में उनकी अटूट आस्था थी। कई-कई घंटों तक पूजा-पाठ में लीन रहा करते थे। मस्तक पर तिलक लगाए हुए जवाहर को दुर्गा सप्तशती रटी हुई थी।

वह दौर मंडल और कमंडल की राजनीति का था। 80 के दशक में संगम किनारे दो अलग-अलग परिवार बुलंदी हासिल कर रहे थे। जौनपुर से रोजगार की तलाश में प्रयागराज आकर छोटे-मोटे काम धंधे करने वाले जवाहर यादव, जो बाद में शराब के धंधे में उतर गए। वहीं दूसरा था करवरिया परिवार। कौशांबी के मंझनपुर के चकनारा गांव का मूल निवासी करवारिया परिवार भी प्रयागराज आकर बस गया। कालीन और फर्नीचर के धंधे से शुरू हुआ सफर रियल एस्टेट के कारोबर तक फैल गया।

राजनीति, बाहुबल, कारोबार का संगम।

जवाहर यादव उर्फ पंडित और करवारिया परिवार। इन दोनों धाराओं का संगम जिस मोड़ पर हुआ, वहां खून की इबारत लिखी गई। दोनों ही धाराओं में राजनीति और बाहुबल का मिश्रण था। इसमें बालू के ठेके का तड़का लग गया। कौशांबी के जगत नारायण करवारिया के बेटे श्याम नारायण करवारिया और विशिष्ट नारायण करवारिया बिजनस बढ़ा रहे थे। श्याम उर्फ मौला महाराज के बेटे हैं कपिलमुनि करवारिया, उदयभान करवारिया और सूरजभान करवारिया।

मुलायम के खासमखास बन गए थे जवाहर।

मुलायम सिंह यादव तेजी से सूबे की राजनीति में पैर पसार रहे थे। उन्होंने नई पार्टी भी बना ली थी। एक-दो मुलाकात में ही जवाहर यादव ने उनके मन में खास जगह बना ली थी। आलम यह रहा कि 1991 के चुनाव में मुलायम मे जवाहर को झूंसी से टिकट भी दे दिया। लेकिन बेहद कम अंतर से वह हार गए। 2 साल बाद ही फिर से चुनाव हुए और अब जवाहर यादव जीतकर माननीय बन गए थे। सपनों को उड़ान मिल चुकी थी। सत्ता में आते ही जवाहर ने शराब के साथ ही बालू के ठेके में हाथ आजमाना शुरू कर दिया।

आमने-सामने आए करवारिया और जवाहर ।

बालू के ठेकों में पहले से ही दबंग माने जाने वाले करवारिया परिवार का बोलबाला था। जवाहर के सामने आने से अनबन शुरू होने लगी। अपनी ही पार्टी की सरकार होने से जवाहर किसी के सामने झुकने को तैयार नहीं थे। वह तेज गति से कदम बढ़ा रहे थे। करवारिया फैमिली को बालू के धंधे से बाहर धकेल कर एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने की तैयारी कर ली थी। उन्होंने संगम किनारे की अपनी जमीन से करवारिया के ट्रकों के गुजरने पर पाबंदी लगा दी।

दोनों पक्षों में बातचीत और सुलह की कोशिशें भी कड़वी साबित हुईं। और धीरे-धीरे उस बात की सुगबुगाहट होनी शुरू हो गई थी, जिसका अंदेशा होने लगा था। गेस्ट हाउस कांड के बाद उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो चुका था। लिहाजा विधानसभा भंग हो चुकी थी और विधायक के तौर पर जवाहर यादव को मिली सुरक्षा भी वापस हो गई थी। करवारिया परिवार से जान के खतरे के मद्देनजर उन्होंने प्रशासन से 2 बार सुरक्षा भी मांगी थी। लेकिन सुरक्षा हासिल नहीं हो सकी।

उस शाम गूंजी AK-47 की तड़तड़ाहट ।

13 अगस्त, 1996 को जवाहर यादव पार्टी दफ्तर से अपने घर की तरफ लौट रहे थे। ड्राइवर गुलाब यादव मारुति 800 कार चला रहा था। पिछली सीट पर जवाहर अपने सहयोगी कल्लन के साथ बैठे थे। सिविल लाइन्स इलाके में पैलेस सिनेमा के पास एक गाड़ी ने ओवरेटक कर रास्ता रोका और फिर बगल में एक सफेद मारुति वैन आकर रुक गई। जवाहर को गड़बड़ी का आभास हो गया लेकिन कोई रास्ता भी नहीं था। गाड़ियों से उतरे लोगों ने ललकारते हुए एके-47, दोनाली राइफल और रिवॉल्वर, पिस्टल से ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी। थोड़ी ही देर में सड़क पर जवाहर का गोलियों से छलनी शरीर पड़ा था।

संगम की धरती पर पहली बार विधायक को एके-47 से मार डाला गया। इस हत्याकांड का आरोप लगा श्याम नारायण उर्फ मौला महाराज, कपिलमुनि करवारिया, उदयभान करवारिया, सूरजभान करवारिया और रामचंद्र त्रिपाठी पर। मौला महाराज की उसी साल मौत हो गई। यह मामला लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक 23 सालों तक चलता ही रहा। 4 नवंबर 2019 को अदालत ने चारों आरोपियों को दोषी मानते हुए IPC की धारा 302, 307, 147, 148, 149 और क्रिमिनल लॉ अमेंमेंट ऐक्ट की धारा 7 के तहत आजीवन कैद की सजा सुनाई।

सांसद, MLA, MLC रहे तीनों भाई ।

करवारिया बंधुओं का रसूख आर्थिक ही नहीं राजनीतिक भी रहा। सबसे बड़े भाई कपिलमुनी करवारिया फूलपुर लोकसभा सीट से सांसद रहे हैं। दूसरे नंबर के उदयभान करवारिया 2 बार बीजेपी से विधायक बने। अभी राजनीतिक विरासत को पत्नी नीलम करवारिया संभाल रही हैं, जो मेजा सीट से बीजेपी विधायक हैं। वहीं तीसरे नंबर के भाई सूरजभान करवारिया मायावती के कार्यकाल में एमएलसी रहे।

जवाहर पंडित की पत्नी ने संभाली कमान ।

वहीं दूसरी तरफ जवाहर की हत्या के बाद उनकी विरासत को आगे ले जाने की जिम्मेदारी पत्नी विजमा ने उठाई। सपा ने उन्हें झूंसी से कैंडिडेट बनाया। वह 1996, 2002 और 2012 के चुनाव में विधायक चुनी गईं। हालांकि 2007 के बाद 2017 के चुनाव में प्रतापपुर से उन्हें हार का सामना करना पड़ा। बेटी ज्योति 2016 में फूलपुर से ब्लॉक प्रमुख बनी थीं। हालांकि एक साल बाद ही अविश्वास प्रस्ताव की वजह से उन्हें पद छोड़ना पड़ा।

बचाव पक्ष ने दर्ज कराए 156 गवाहों के बयान। 

उत्तर प्रदेश की राजनीति में हलचल पैदा करने वाले इस मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट में अभियोजन की ओर से 18 गवाहों के बयान कराए गए थे। इसके अलावा करवरिया बंधुओं को निर्दोष साबित करने के लिए बचाव पक्ष की ओर से 156 गवाहों को कोर्ट में पेश किया गया था। 23 साल तक चली सुनवाई के बाद कोर्ट ने 18 अक्टूबर 2019 को अपना फैसला सुरक्षित कर लिया था।