सावधान ! हमारी प्रकृति माता कुछ कह रही हैं

 पीढियों के लिये कुछ करने का समय हाथ से ना निकल जाए
 
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सावधान ! हमारी प्रकृति माता कुछ कह रही हैं

( मनोज कुमार द्विवेदी, अनूपपुर- मप्र ) 

अनूपपुर / 1970 के दशक में मुझे मध्यप्रदेश के सरगुजा, शहडोल, बस्तर जैसे वनाच्छादित प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण क्षेत्र में ही जीवन बिताने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। लगभग 40 वर्षों से हमें नर्मदा मैया की असीम कृपा प्राप्त है और 1981 से मैं अमरकंटक को बहुत नजदीक से देख ,समझ और महसूस कर रहा हूँ । मेरी मेरे हम उम्र मित्रों से इस क्षेत्र में हुए विकास और बदलाव पर लगातार चर्चा होती रहती है। किसी समय शहडोल- अमरकंटक एकल मार्ग ही पुष्पराजगढ की जीवन रेखा थी‌ । ना बेनीबारी ,करपा , अमगंवा रोड बना था और ना ही राजेन्द्रग्राम से विकासखंड के अन्य गाँवों तक सम्पर्क ही आसान था। जीवन बहुत कठिन लेकिन सामाजिक जीवन बहुत ही सरल, सौहार्द पूर्ण, सहकारी और प्रकृति अनुकूल था। मुझे और मेरी पीढी के लोगों को आज भी ध्यान है कि 1985-90 तक अमरकंटक, बेनीबारी, राजेन्द्रग्राम  क्षेत्र में अप्रैल - मई की रातों में भी कंबल या एक पतली रजाई के लायक ठंड होती थी। दि‌न तपते नहीं थे , रात में मच्छरदानी लगा कर लोग खुले आंगन - छतों में सुकून से सोया करते थे। अमरकंटक के किसी होटल या आश्रमों में कूलर नहीं था, एसी की बात तो भूल ही जाईये। नदियों, तालाबों,बोरवेल, कुंओं के पानी पेय माने जाते थे। इनसे भोजन पकता था, हम इसे सहजता से बारहों महीने पीते थे। हमारी कल्पना में नहीं था कि बोतलों में या केन मे पानी बिक भी सकता है।

आज विकास बहुत हुआ है। सम्पर्क चाहे कंक्रीट की चिकनी सडकों का हो या जियो, एयरटेल या अन्य कंपनियों के नेटवर्क का , दुनिया मानों कि आपकी मुट्ठी में, आपकी उंगलियों और अंगूठे के इशारे पर नाचती दिख रही है। जीवन सरल तो नहीं लेकिन अधिक सुविधाजनक हो गया है।
जरा ध्यान दें तो पाएगें कि इन सुविधाओं की बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। छिन्न - भिन्न होते  सामाजिक ताने के लिये आंकड़े आप अजाक थाने , पुलिस डेस्क या कुटिल नेताओं की डायरी से ले सकते हैं । अभी चर्चा सिर्फ प्राकृतिक पर्यावरणीय बदलावों पर ही केन्द्रित करते हैं।

दुनिया के तमाम देशों में जब युद्धोन्माद हो ,भारत इससे दूर रह कर भी इसके दुष्प्रभाव से नहीं बच रहा है। हिन्द महासागर का बढता तापमान, पिघलते हिमालयन ग्लेशियर , लगातार नीचे जाता पृथ्वी का जल स्तर मानव जीवन के लिये बड़ा खतरा बन चुका है। जिस तरह से बे मौसम बारिश,बाढ,जंगलों में आग, गर्मियों में बर्फबारी, भू स्खलन हो रहे हैं , गर्मियों में तापमान 40-45 एकदम सामान्य सी घटना हो गयी है। बदलाव इतना अधिक है कि शहरों से लोग अमरकंटक , पचमढी, शिमला, दार्जिलिंग जाते हैं तो वहाँ के होटल्स, धर्मशाला, गेस्ट हाऊसों को एसी से ठंडा किया जा रहा है।

हमारी पीढी के लोगों ने देखा है कि 1970-80 के दौर में बिजली से चलने वाला पंखा ही विरला था। लेकिन तब तक हरियाली बहुत थी और प्रदूषण किताबों में पढ़ा करते थे। जंगलों में सड़कें और पक्के मकान तो बिल्कुल भी नहीं थे। 1980 -- 1990 में पंखे तो लग गये लेकिन आवश्यकता अप्रैल - अगस्त तक होती थी।‌ 1990-2000 ये वो दौर था जब जंगल कटने लगे, गाँव कस्बों में और कस्बे छोटे शहरों के स्वरूप लेने लगे। पंखे, कूलर गाँव तक पहुंच चुके थे। 

 विकास की आंधी 2000-2020 के बीच ऐसी चली कि जंगलों के रकवे सिकुड़ गये और शहरों, कस्बों ,गाँव - गाँव होकर जंगलों का भी कंक्रीटीकरण हो गया। डामर की ज्गह पत्थर, लोहे, रेत, सीमेंट की बनी सड़कों , पक्के व्यावसायिक भवनों ने ना केवल जल प्रवाह को बाधित किया बल्कि भीषण तापमान में भी बढोतरी हो गयी।

बढती आबादी और मनुष्यों के अमानवीय लालच ने जल , वन, मृदा, वायु ,आसमान ,शांति और विशुद्ध पर्यावरण का जमकर व्यावसायीकरण करते हुए  प्राकृतिक संसाधनों को निचोड़ कर रख दिया।

पानी,हवा,मिट्टी,धरती,आसमान,पाताल सबके सब सेवा के नाम पर विक्रय के लिये सुलभ हैं । गर्मियों में पान - चाय के टपरों, होटलों में प्याऊ के पानी की जगह कीमत चुकाने पर बोतलों और आर ओ का पानी मिलने लगा। अब लोग झरने, नदियों, तालाबों, कुँए ,नल का पानी नहीं पीते, आरओ का पानी पी रहे हैं। 

तापमान अभी 45-48 है ....हो जाता है। इससे भी अधिक हो सकता है। प्रकृति अपना शोषण किसी सीमा तक बर्दाश्त करेगी। बाद में वो अपने मूल स्वरूप को फिर धारण करेगी....स्वयमेव जरुर धारण करेगी।

आने वाले 2030-4्0 तक जब एसी भी असरकारी नहीं होंगे तो उसके बाद लोग फिर वैदिक कालीन जीवन पद्धति की ओर लौटेगें। यह स्वैच्छिक नहीं मजबूरी में प्राण बचाने की कवायद होगी। सर्वाईवल आफ फिटेस्ट की थ्योरी लागू होगी। जो जीवन योग्य होगा वही यह सब कर पाएगा। 

अब भी समय है कि प्रकृति के प्रति और अपनी आने वाली पीढ़ियों की रक्षा के लिये प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की कोशिश करें। बारिश का पानी संजो कर रखें, रुफ हार्वेस्टिंग सिस्टम, कुओं, तालाबों,बावडियों को पुन: अपनाएं। शेष बची सार्वजनिक जमीनों मन्दिर, तालाब ,नदी तटों में सघन वृक्षारोपण करें। एक घर - दो पेड़ कॆ नियम को अनिवार्य करें। जबकि शासकीय कार्यालयों, व्यावसायिक काम्प्लेक्स में इसके लिये अनिवार्य नियम बनाए जाएं। जंगलों को बचाए तथा इनके भीतर मानवीय दखल बन्द कर दें तो शायद समय रहते कुछ सुधार हो जाए। अन्यथा लग तो यही रहा है कि अपनी प्रकृति माता बहुत नाराज हैं। नाराज प्रकृति यदि अप्राकृतिक हो जाए तो यह समूची पृथ्वी के लिये विनाशकारी हो सकता है। ईश्वर करें कि हम चेत जाएं और प्रकृति पसंद कार्य ही करें।