महात्मा गांधी एवं शास्त्री जी की प्रासंगिकता एवं जयंती पर कोटिशः बधाई …….

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महात्मा गांधी एवं शास्त्री जी की प्रासंगिकता एवं जयंती पर कोटिशः बधाई …….

प्रिय आत्मीय गांधी, शास्त्री जयंती की अनंत हार्दिक बधाई,गांधी आलोचना नासमझी! असहमति हत्या का अधिकार नहीं देती,गांधी का चित्र आइंस्टीन की मेज़ पर, गांधी की नर्सरी से भविष्य में सच्चे नेता। गांधी को राष्ट्रपिता सुभाष चंद्र बोस ने कहा था। आज गांधी वर्सेज सुभाष के विघटनकारी ताक़तों से बचकर गांधी और सुभाष की दिशा में देश को आगे बढ़ना है।चुनाओं में शास्त्री जैसे लोगों को प्रत्याशी बनायें/चुनें, गरीब आईआईटी छात्र के लिये SC का सही फ़ैसला।
  महात्मा गांधीऔर लाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती पर आप सब को अनंत हार्दिक शुभ कामनाएँ, बधाइयाँ।
आज का “सबका हल” इन्हीं दो महापुरुषों को समर्पित-लाल बहादुर शास्त्री, देश के सबसे प्यारे और सादगी से ओतप्रोत प्रधानमंत्री और गांधी, एक युग नायक।
 आजकल अनेकों सोशल मीडिया वाटसेप और फ़ेस्बुक पर गांधी को शैतान और गोडसे को महात्मा बताते हुए नोट्स फ़ॉर्वर्ड किए जा रहे है, लोग बिना गहराई में गए ही फ़ॉर्वर्ड कर रहे हैं। 
 गांधी से हम असहमत हो सकते हैं, उनके तरीक़े से असहमत हो सकते हैं,उनके कुछ प्रयोगों से असहमत हो सकते हैं उनके कुछ विचारों से असहमत हो सकते हैं या उनके कुछ कार्यों से असहमत हो सकते हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उन्हें एक सिरे से ख़ारिज कर दें या उनकी भूमिका को नकार दें या गोडसे का महिमा मंडन शुरू कर दें। असहमति हमें हत्या का हक़ तो नहीं देती। यदि मैं आपसे असहमत हूँ तो मैं आपकी हत्या कर दूँ और ये जायज़ हो जाएगा ? लोकतंत्र आ चुका था, गोडसे लकतांत्रिक तरीक़े से विरोध करते तो स्वीकार्य था।

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और गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में जो नेतृत्व किया है उसका निम्न बिंदुओं की वजह से हमेशा ही विशेष महत्व रहेगा ही रहेगा , कभी कम नहीं होगा -
1- गांधी का राष्ट्र के प्रति समर्पण।
2- गांधी का निस्वार्थ त्याग भाव, जिसकी वजह से परिवार से कितनी आलोचना मिली।
3 - आत्मनुशासन ।
4 - समग्र चिंतन और लघुतम  और महत्तम के मध्य अजीब सा संतुलन।
5 - आँखों में अजीब सा आकर्षण ( यह मेरे स्वर्गीय पिता एवं अन्य तमाम प्रत्यक्ष दर्शी स्वतंत्रता सेनानियों ने व्यक्तिगत बातचीत में मुझे बताया )
6 - स्वतंत्रता आंदोलन के लिए इतने लोगों को 2-2 आश्रमों में तैयार करना जो आगे के समय में देश का नेतृत्व कर सकें। आज किसी दल का कोई भी सुप्रीमों नहीं चाहता की उसके आसपास तमाम क़ाबिल लोग तैयार किए जाये।
ऐसे में भविष्य द्रष्टा गांधी द्वारा स्वतंत्र भारत के लिए नेतृत्व दे सकने वाले महा पुरुषों को तैयार करना अपने में सबसे बड़ा योगदान है। 
लाल बहादुर शास्त्री भी गांधी द्वारा तैय्यार की गयी नर्सरी की एक पौध हैं ।
7 - गांधी केवल एक समूह एक वर्ग एक जाति या एक धर्म यहाँ तक कि केवल एक देश के  नायक नहीं रहे हैं, केवल राजनीति के नायक नहीं रहे हैं ।वे संपूर्णता में सोचते थे। वह सच्चे अर्थों में संपूर्ण भारत के साथ साथ संपूर्ण मानवता और संपूर्ण विश्व और आने वाले समय के महानायक थे। इसलिए वे पूरी दुनिया में युग पुरुष के रूप में जाने जाते हैं और समय के साथ साथ उनका और उनके विचारों का मूल्य और अधिक बढ़ता जा रहा है, घना होता जा रहा है ।समस्या वहाँ उत्पन्न होती है जहाँ हम उनका मूल्यांकन किसी छोटे दृष्टिको से, ओछे नज़रिए से या किसी निहित स्वार्थवश करने लगते हैं। या यूँ कहें गांधी हमें तब बौने लगने लगते हैं जब हम उनको किसी बौने नज़रिए से देखने की कोशिश करते हैं।

  आइए उस समय के महानतम वैज्ञानिक आइन्स्टायन की तरफ़ रुख़ करते हैं ।
  शुरुआती दौर में एक वैज्ञानिक के रूप में उन्होंने दो महान वैज्ञानिकों को ही अपना आदर्श माना था. और ये दो वैज्ञानिक थे- आइज़क न्यूटन और जेम्स मैक्सवेल. उनके कमरे में इन्हीं दो वैज्ञानिकों की पोर्ट्रेट लगी रहती थीं. लेकिन अपने सामने दुनिया में तरह-तरह की भयानक हिंसक त्रासदी देखने के बाद आइंस्टीन ने अपने घर में लगे इन दोनों पोर्ट्रेट के स्थान पर दो नई तस्वीरें टांग दीं. इनमें एक तस्वीर थी महानमानवता वादी अल्बर्ट श्वाइटज़र की और दूसरी थी महात्मा गांधी की. इसे स्पष्ट करते हुए आइंस्टीन ने उस समय कहा था- ‘समय आ गया है कि हम सफलता की तस्वीर की जगह सेवा की तस्वीर लगा दें।
दो अक्टूबर,1944 को महात्मा गांधी के 75वें जन्मदिवस पर आइंस्टीन ने अपने संदेश में लिखा था, ‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’  
    गांधी जी की मृत्यु पर लिखे संदेश में आइंस्टीन ने कहा था, ‘लोगों की निष्ठा राजनीतिक धोखेबाजी के धूर्तता पूर्ण खेल से नहीं जीती जा सकती, बल्कि वह नैतिक रूप से उत्कृष्ट जीवन का जीवंत उदाहरण बनकर भी हासिल की जा सकती है’
30 जनवरी,1948 को जब गांधी जी की हत्या हुई और पूरी दुनिया में शोक की लहर फैल गई, तो आइंस्टीन भी विचलित हुए बिना नहीं रहे थे.11 फरवरी,1948 को वाशिंगटन में आयोजित एक स्मृति सभा को भेजे अपने संदेश में आइंस्टीन ने कहा, ‘वे सभी लोग जो मानव जाति के बेहतर भविष्य के लिए चिंतित हैं, वे गांधी की दुखद मृत्यु से अवश्य ही बहुत अधिक विचलित हुए होंगे. अपने ही सिद्धांत यानी अहिंसा के सिद्धांत का शिकार होकर उनकी मृत्यु हुई. उनकी मृत्यु इस लिए हुई कि देश में फैली अव्यवस्था और अशांति के दौर में भी उन्होंने किसी भी तरह की निजी हथियार बंद सुरक्षा लेने से इनकार कर दिया. यह उनका दृढ़ विश्वास था कि बल का प्रयोग अपने आप में एक बुराई है, और जो लोग पूर्ण शांति के लिए प्रयास करते हैं, उन्हें इसका त्याग करना ही चाहिए. अपनी पूरी जिंदगी उन्होंने अपने इसी विश्वास को समर्पित कर दी और अपने दिल और मन में इसी विश्वास को धारण कर उन्होंने एक महान राष्ट्र को उसकी मुक्ति के मुकाम तक पहुंचाया. उन्होंने करके दिखाया कि लोगों की निष्ठा सिर्फ राजनीतिक धोखा धड़ी और धोखेबाजी के धूर्तता पूर्ण खेल से नहीं जीती जा सकती है, बल्कि वह नैतिक रूप से उत्कृष्ट जीवन का जीवंत उदाहरण बनकर भी हासिल की जा सकती है.’
गांधी जी के बारे में आइंस्टीन का कहना था, ‘उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में भी मानवीय संबंधों की उस उच्चस्तरीय संकल्पना का प्रतिनिधित्व किया जिसे हासिल करने की कामना हमें अपनी पूरी शक्ति लगाकर अवश्य ही करनी चाहिए’
उन्होंने आगे लिखा, ‘पूरी दुनिया में गांधी के प्रति जो श्रद्धा रखी गई, वह अधिकतर हमारे अवचेतन में दबी इसी स्वीकारोक्ति पर आधारित थी कि नैतिक पतन के हमारे युग में वे अकेले ऐसे स्टेट्समैन थे, जिन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में भी मानवीय संबंधों की उस उच्चस्तरीय संकल्पना का प्रतिनिधित्व किया जिसे हासिल करने की कामना हमें अपनी पूरी शक्ति लगाकर अवश्य ही करनी चाहिए. हमें यह कठिन सबक सीखना ही चाहिए कि मानव जाति का भविष्य सहनीय केवल तभी होगा, जब अन्य सभी मामलों की तरह ही वैश्विक मामलों में भी हमारा कार्य न्याय और कानून पर आधारित होगा, न कि ताकत के खुले आतंक पर, जैसा कि अभी तक सचमुच रहा है.’
उसी साल के अंत में दो नवंबर, 1948 को ‘इंडियन पीस कांग्रेस’ को भेजे गए अपने संदेश में आइंस्टीन ने इन शब्दों में महात्मा गांधी को याद किया था, ‘...क्रूर सैन्य शक्ति को दबाने के लिए उसी तरह की क्रूर सैन्य शक्ति का कितने भी लंबे समय तक इस्तेमाल करते रहने से कोई सफलता नहीं मिल सकती. बल्कि सफलता केवल तभी मिल सकती है, जब उस क्रूर बल का उपयोग करने वाले लोगों के साथ असहयोग किया जाए. गांधी ने पहचान लिया था कि जिस दुष्चक्र में दुनिया के राष्ट्र फंस गए हैं, उससे बाहर निकलने का रास्ता केवल यही है. आइए, जो कुछ भी हमारे वश में है हम वह सब कुछ करें ताकि, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, दुनिया के सभी लोग गांधी के उपदेशों को अपनी बुनियादी नीति के रूप में स्वीकार करें.’
इसके बाद भी कई अवसरों पर उन्होंने गांधी का उल्लेख किया. एक बार उन्होंने कहा था, ‘ऐसी सभी परिस्थितियों में, जहां समस्याओं का तर्कसंगत समाधान संभव है, मैं ईमानदारी के साथ समन्वय पसंद करता हूं. और यदि मौजूदा परिस्थितियों में ऐसा करना संभव न हो, तो अन्याय के विरुद्ध गांधी के शांतिपूर्ण प्रतिरोध का तरीका पसंद करता हूं.’
यह भी मान सकते हैं कि आइंस्टीन के धर्म-विषयक विचारों पर गांधी के जीवन का प्रभाव बहुत अधिक रहा होगा. तभी उन्होंने अपने प्रसिद्ध लेख ‘साइंस, फिलॉसॉफी एंड रिलीजन’ में शुद्ध धार्मिक व्यक्ति की पहचान ऐसे व्यक्ति के रूप में की थी ‘जो निजी आशाओं और आकांक्षाओं के बन्धन से मुक्त होकर चलने का प्रयास करता है. जो प्रकृति में निहित तार्किकता को विनम्रता से पहचानते हुए चलता है. जिसने स्वयं को स्वार्थों से मुक्त कर लिया है और ऐसे विचारों तथा भावनाओं में लीन रहता है, जो निज से परे होती हैं.’ उन्होंने उदाहरण के तौर पर बुद्ध और स्पिनोज़ा का नाम भी लिया था. लेकिन धार्मिक व्यक्ति का ऐसा चित्रण करते हुए स्वार्थ- त्याग और सेवा का जीवंत उदाहरण बन चुके गांधी उनके अवचेतन में कहीं न कहीं मौजूद तो थे ही. गांधी और श्वाइटज़र की तस्वीर अपने मेज के ठीक सामने लगाते समय भी उन्होंने यही तो कहा था।

 एक मित्र ने लिखा -
‘मैं जानना चाहता हूं कि-
1-देश के विभाजन के लिए कौन ज़िम्मेदार है ?
2-1947 में 10 लाख से अधिक लोगों के कत्लेआम के लिए कौन जिम्मेदार है ? 
3- कांग्रेस के कुकर्मों के लिए  कौन ज़िम्मेदार है?’
मैंने उत्तर दिया -
‘जहाँ तक तीसरे प्रश्न का उत्तर है गांधी जी ख़ुद चाहते थे की स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस को समाप्त कर दिया जाए।
 पहले और दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि उस समय की मानसिकता जिसे गांधी जीवन भर प्रयास के बाद भी नहीं बदल पाए ?
और दुःख इस बात का है कि वह मानसिकता अभी ज़िंदा है।
क्या हम गांधी की उस मशाल को आगे ले चलने के लिए आज हम तैय्यार हैं या देश दुनिया और समाज को धर्म जाति, समूह और न जाने कितने टुकड़ों में बाँटते रहेंगे रहेंगे अथवा बंटते देखते रहेंगे ?’

एक दूसरे मित्र ने गांधी को अंग्रेजों का दलाल ,शैतान ,हिंदू द्रोही और न जाने क्या क्या कहते हुए गोडसे का महिमा मंडन किया और उन्हें सच्चा देश भक्त, महात्मा और भगत सिंह की कोटि का शहीद बताया। उन्होंने दुःख ज़ाहिर करते हुए अंत में लिखा 
‘अब क्या कहें गांधी को 
देश पर थोपा जा चुका है।’
 मैंने उन्हें लिखा ‘उस समय देश की जनता जो सब कुछ देख भोग रही थी वह गांधी के साथ थी, उन्हें अपनी आवाज़ मान रही थी, अपना मान रही थी; और एक दो या 5-10 साल नही  पूरे 75 साल बाद भी हम गांधी को गाली दे रहे हैं ? गांधी इतने भी बुरे होते तो उस समय की जनता पागल नहीं थी जो उनके साथ चल रही थी।
मैंने उन्हें गुरुनानक कि वह चौपाई भी उद्धृत की -
जे न दें चुल्लू भर पानी ,
ते निदयं जे गंगा आनी।
 अर्थात जो किसी को चुल्लू भर पानी न पिलाते हैं न पिला सकते हैं वे उनकी निंदा कर रहे हैं जो गंगा लाए थे।

तीसरे मित्र ने लिखा -
आप ने जिस निर्ममता से गोडसे को ग़लत करार देते हुए उसे नकारा  वह भी उचित नहीं। क्या गोडसे को गांधी जी से उसकी व्यक्तिगत दुश्मनी थी? क्या वह गांधी जी की निंदा करता था?‘
मैंने उन्हें उत्तर में लिखा -
आपकी मेरी व्यक्तिगत दुश्मनी न हो, वैचारिक भिन्नता हो तो मैं आपकी हत्या कर दूँ , तो क्या यह अनुचित भी नहीं कहा जाएगा !!
कल्पना करिए एक बार देश के सारे लोग अपने अपने वैचारिक विरोधियों के साथ यही कर डालते जो गोडसे ने किया तो शायद देश में एक भी आदमी नहीं बचेगा ।
तब कोई इस बहस के लिए भी नहीं बचेगा कि गांधी सही थे या गोडसे या आप या मैं !’

 आशा है आप गहराई से विचार करेंगे .अपने विचार लिखेंगे ।सच्चा लोकतंत्र यही है कि विचारों का खुला आदान प्रदान हो और आँखें खुली हों ।
एक बार फिर गांधी और शास्त्री को नमन करता हुआ राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के इन शब्दों के साथ -
तूफ़ान और क्रांति मोटी नहीं 
महीन आवाज़ से उठती है ।
वह आवाज़,
जो मोम के दीप के समान एकांत में जलती है;
और बाज़ नहीं, कबूतर की चाल से चलती है।
गांधी तूफ़ान और क्रांति के जनक 
और उनके काम बाजों पर भी भारी थे। क्योंकि वे नीरवता की आवाज़ थे।
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आज लालबहादुर शास्त्री देश के अब तक  के सबसे प्यारे और  सादगी से ओतप्रोत, राष्ट्र, जनता ( हम भारत के लोगों ) से और ज़मीन से जुड़े हुए,किसानों और जवानों को महत्व देने/ दिलाने वाले सत्य और अहिंसा के साधक ( किंतु आत्म रक्षार्थ युद्ध को भी स्वीकारने वाले ), बड़बोलेपन से परे शांत भाव वाले, काम पर ही ध्यान, प्रचार में नही, निर्विवाद और सबके आदर्श ,निस्वार्थ तपस्वी तथा सामान्य परिवार से उभरे तथा सामान्य तरीक़े से ही परिवार को पालने / निभाने वाले प्रधानमंत्री के जन्म दिन पर बधाइयाँ ; और विशेष शुभकामना यह कि देश में आगे आने वाले सभी चुनावों में हम सब को शास्त्री जी जैसा ही प्रतिनिधि मिले। और यह असम्भव नहीं, सम्भव है ; और होने भी जा रहा है ।हमको आपको ही सम्भव करना है । 
वंदे मातरम
एस. एस. विजय मिश्र