ऐसी बानी बोलिये,मन का आपा खोय -

ऐसी बानी बोलिये,मन का आपा खोय -
 | 
4

Photo by google

ऐसी बानी बोलिये,मन का आपा खोय -

मगहर वाले कबीर दास जी आज बहुत याद आ रहे हैं ,उनका लिखा एक-एक शब्द आज के भारतीय नेताओं के शब्द ज्ञान को देखने और सुनने के बाद बदलने का मन करता है। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता । बाबा कबीर ने जो कहा उसे भगवान भी नहीं बदल सकता,नेताओं की और हम तुकारामों की तो हैसियत क्या है।? लेकिन कभी-कभी सोचता हूँ कि यदि आज बाबा होते तो क्या वे अपने तमाम दोहों को नए सिरे से न लिखते ! उन्हें लिखना पड़ता क्योंकि मुझे लगता है कि गुजरात से हर बात का रिश्ता जोड़ने में सिद्ध हस्त हमारे भाग्य विधाता शब्दों का, उनके अर्थों का अनर्थ करने में भी सिद्ध हस्त हैं।

मुमकिन है कि हमारे तमाम पाठक इस बात से आजिज आ गए हों कि मै घूम-फिर कर भाग्य विधाता पर ही क्यों आ जाता हूँ ? लेकिन इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं हैं । हकीकत ये है कि हमारे भाग्य विधाता ही इस सबके केंद्र में हैं। वे परिदृश्य से हटें तो कोई और बात हो। पिछले दिनों उनके बारे में कांग्रेस के राहुल गांधी ने ' पनौती ' शब्द का इस्तेमाल किया तो मुझे लगा कि माननीय इस पर प्रतिक्रिया नहीं देंगे,लेकिन मै गलत था । माननीय ने प्रतिक्रिया दी और राहुल को ' मूर्खों का सरताज ' कह दिया। हालाँकि मै पनौती की ही तरह मूर्खों के सरताज को भी असंसदीय शब्द नहीं मानता लेकिन इस शब्द में खीज भरी है जो छलकती दिखाई देती है। पनौती में वक्रोक्ति है, खीज नहीं।

बहर हाल माननीय ने एक ही शब्द में राहुल और उनके असंख्य समर्थकों को निबटा दिया। अच्छा ही किया। हिसाब बराबर हुआ। अब भगवान करे कि आने वाले दिनों में ये शब्द-संघर्ष बंद हो जाये । हमास है इस्राइल के युद्ध की तरह लंबा न खिंचे। इस सशब्द युद्ध की वजह से हम दूसरे विषयों तक पहुँच ही नहीं पा रहे। शब्दयुद्ध कोई नई विधा नहीं है ।  ये सनातन विधा है । महा भारत इसी विधा की वजह से हुआ। दुनिया के तमाम युद्धों के पीछे शब्द वाण ही होते हैं। हालाँकि बाबा कबीर दास कहते थे कि -ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय।औरन को शीतल करे ,आपहुं  शीतल होय।  बाबा का ये दोहा आज के नेताओं ने ढंग से समझा ही नही। वे मन का आपा खोकर ऐसी बानी बोलने लगे जिससे और भी विचलित हो रहे हैं और खुद आप भी। यानि दोहा हो गया-'ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोय। औरन को विचलित करे ,आपहुं विचलित होय।

भारत की संसद ने पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर उद्भट सांसद बिधूड़ी जी तक के भाषण सुने हैं, उनके सामने पनौती और मूर्खों का सरताज जैसे शब्द हीन -दीन मालूम पड़ते हैं। राहुल और मोदी जी को कम से कम बिधूड़ी से एक-दो कदम तो आगे रहना ही चाहिए,आख़िरकार दोनों अपने -अपने दलों के शीर्ष नेता हैं ! कल तक मै मानता था कि पनौती में हास्य -बोध है ,लेकिन जब केंद्रीय चुनाव आयोग ने इस शब्द के साथ ही एक और शब्द ' जेबकतरा' शब्द के लिए राहुल गांधी को नोटिस जारी किये तो मुझे लगा कि केंचुआ में तो हम जैसे लिख्खाड़ों से कहीं ज्यादा बड़े भाषा विज्ञानी मौजूद हैं। उन्हें ' मूर्खों का सरताज' के मुकाबले ' पनौती और ' जेबकतरा' ज्यादा घातक,ज्यादा अपमान जनक लगता है। हमारा केंचुआ नख-दन्त हीन है ,उसकी सीमाएं हैं अन्यथा वो तो संसद के भीतर अलंकारिक शब्द बोलने के लिए माननीय बिधूड़ी जी को भी नोटिस दे सकता था।

मुझे याद आता है कि राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी के आखिर चुनाव के वक्त मेरे अख़बार के एक संवाददाता ने कांग्रेस के एक नेता को ' जेबकतरा' लिख दिया था तो नेता जी सीधे अदालत चले गए थे। अदालत ने मुझे और मेरे संवाददाता को तलब किया। हमने अदालत में कहा कि 'जेबकतरना एक ललित कला है। जो दर्जी को भी आती है। दर्जी एक से बढ़कर एक सुंदर और सुरक्षित जेबें बनाता है ,बावजूद वे कट जाती हैं, इसलिए भरी जेब काटना खाली जेब बनाने से ज्यादा बड़ी ललित कला है। अदलात ने हमें मुक्त कर दिया। फरियादी भी आकर गले मिल गया, क्योंकि वो जेबकतरा नहीं था। उसके खिलाफ गलत शब्द का इस्तेमाल किया गया था,लेकिन राहुल गांधी ने तो सही शब्दों का इस्तेमाल किया है। उससे न अडानी विचलित हैं ,न मोदी जी और न शाह साहब । लेकिन केंचुआ विचलित है। जबकि उसके बारे में कोई कुछ कहता ही नहीं। हमारे केंचुआ कि दीन हीनता को देखते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने उसे ' भूमिनाग' कहा। इसे कहते हैं कमाल और शब्दों का सही इस्तेमाल। एक रीढ़ विहीन प्राणी को यदि आप नाग कह दें तो कितना खुश होगा !

बहर हाल मुझे उममीद है कि आने वाले दिनों में राजस्थान कि वोटरों को मनाने के लिए माननीय को मीरा की मथुरा नहीं जाना पडेगा। गुजरात का कमाल है कि उसका ताल्लुक भारत के किसी न किसी हिस्से से किसी न किसी रूप में है अवश्य। जैसे ग्वालियर से गुजरात का रिश्ता ससुर-दामाद का है तो मीरा से गुजरात का रिश्ता भक्ति भाव  का है। मीराबाई का मन मथुरा से 15  साल में ही ऊब गया और फिर वे द्वारिका चलीं गयीं । क्योंकि उनके आराध्य भी मथुरा-वृन्दावन छोड़कर द्वारिका चले गए थे। यानि गुजरात हर मामले में आदर्श है। हम लोग फालतू में गुजरात मॉडल को कोसते हैं। हमने तो गुजरात को आजादी से पहले भी नेतृत्व सौंपा था और आजादी के बाद भी। लेकिन तब के गुजरात और गुजरातियों में और आज के गुजरात और गुजरातियों में बहुत अंतर् आ गया है।
चलिए आज के वार्तालाप को यहीं विराम देते हैं और प्रार्थना करते हैं कि द्वारिकाधीश की कृपा से उत्तराखंड कि सुरंग में फंसे हमारे 41 श्रमवीर सकुशल बाहर आ जाएँ। भूगर्भ में बारह दिन बिताना कोई आसान काम नहीं है। भारत और दुनिया के वैज्ञानिक इन श्रमवीरों को बचने के लिए जो प्रयास कर रहे हैं उन्हें हर हाल में कामयाबी मिलना चाहिए।
@ राकेश अचल