देश को धर्म के 'ऐंटी डोज' की आवश्यकता -

अन्यथा आगे एक गहरी और अंधी खाई है -
 
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देश को धर्म के 'ऐंटी डोज' की आवश्यकता -

दुनिया में जो देश आजाद हुए हैं या होते हैं वे आजादी के बाद एक नयी हवा में सांस लेते है। दुनिया की मुख्यधारा में जुड़ने के लिए जो बन पड़ता है सो करते हैं, लेकिन हमारा प्यारा भारत देश बीसवीं सदी में आजाद होने के बाद हासिल उपलब्धियों पर धर्म की धूल चढ़ाने पर आमादा है । ये सुखद है या दुखद ,हानिप्रद है या लाभप्रद इसकी समीक्षा करने के लिए कोई तैयार नहीं है । 

अधिकाँश राजनीतिक दलों में ये दिखने की होड़ है कि कौन कितना अधिक धर्मनिष्ठ कहिये या धर्मभीरु है। लोकतंत्र की फ़िक्र जैसे अब किसी को रही ही नहीं।
हिंदुस्तान को आजादी धर्म के आधार पर नहीं बल्कि धर्म निरपेक्षता के आधार पर मिली थी। धर्म के आधार पर तो पाकिस्तान बना और आजाद हुआ था। कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन की सहयोगी पार्टियों ने दशकों तक भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बरकरार भी रखा, लेकिन 1980 में भाजपा के जन्म के बाद से राजनीति में धर्म की जो घुसपैठ हुई वो आज चरम पर है।

 आज हमारे तमाम सत्ताधीश धर्म- धुरंधर है। वे धर्म को पिछले सात दशक में हुई कथित हानि की भरपायी के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को राजी है। धर्म की पुनर्स्थापना ही जैसे सत्ता का परमोधर्म हो गया है। पिछले चार दशक में भाजपा ने धर्म के ज्वार- भाटे को नयी दिशा दी है। अब सतह पर सब कुछ राममय है, किन्तु हकीकत में कुछ भी बदला नहीं है अपितु जितना कुछ बना भी था वो भी बिगड़ गया है।

भाजपा ने धर्म का धुंआं इतना उड़ा दिया है कि अब कांग्रेस भी धर्मनिरपेक्षता का युद्ध लड़ने के लिए यदा-कदा रामनामी ओढ़ लेती है ,आम आदमी पार्टी ने देश की राजनीति में एक अलग रास्ता अपनाया था किन्तु दुर्भाग्य ये है कि वो भी धर्मनिष्ठ पार्टी बनने में लगी है। भाजपा के राम रटंत के जबाब में आम आदमी पार्टी दिल्ली में बजरंगबली को याद करते हुए सुंदरकांड करा रही है। भाजपा से लड़ने में एकजुट होने में असमर्थ राजनीतिक दलों का यही संकट है।

भाजपा की धर्म की राजनीति से लड़ने के लिए अब कांग्रेस की कोख से निकली तृणमूल कांग्रेस ने भी धर्म का सहारा ले लिया है ।  बंगाल में राम नहीं हैं,वहां काली  माँ है। आगामी 22 जनवरी देश को रामरंग में रंगने के लिए अयोध्या में रामलला के नए विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा का दिन है। इस दिन के जबाब में विपक्षी नेता 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा के बजाय अन्य कार्यक्रमों में भाग लेने की योजना बना रहे हैं। कांग्रेस की भारत जोड़ो न्याय यात्रा के रथी राहुल गांधी इस दौरान भगवान शिव के धाम में रह सकते हैं। कांग्रेस नेता की गुवाहाटी में शिव धाम जाने की योजना है। वहीं, बंगाल की सीएम और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी 22 जनवरी को काली मंदिर जाएंगी। यह मंदिर काली घाट में है। दीदी वहां अलग-अलग धर्मों के धर्मगुरुओं के साथ एक रैली निकालेंगी।

भाजपा ने धर्म की ऐसी रेखा खींची है की उसके सामने अन्य रेखाएं छोटी पड़ रहीं है। अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में जाना या न जाना नेताओं के हिंदुत्व की कसौटी बन गया है । मजबूरन प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार करने वाले देश के तमाम राजनितिक दलों को अपने आपको हिन्दू समर्थक बताने के लिए ही ये उपक्रम करना पड़ रहे हैं। कोई दल विकास और धर्म निरपेक्षता की रास हाथ में लेकर आगे नहीं बढ़ना चाहता। भाजपा हिन्दू धर्म के आधार पर कम से कम आधी आबादी में तो विभाजन रेखा खींचने में कामयाब हो गयी है। ये सबसे बड़ा खतरा लोकतंत्र के लिए है। जो धर्म, लोगों को आपस में जोड़ने का काम करता था वो ही अब लोगों को तोड़ने का काम कर रहा है। धर्म लोगों को सहिष्णु बनाने के बजाय हिंसक बना रहा है। धर्म प्रेम की गंगा बहाने के बजाय घृणा के नए-नए नाले बना रहा है।

अतीत में झांककर देखें तो पता चलता है कि धर्म की बगियाँ  पहले आश्रम हुआ करते थे। धर्म राजनीति और राज सत्ता पर अंकुश की भूमिका में था। धर्म और राजनीति में गठजोड़ नहीं बल्कि एक समन्वय था। दोनों के बीच समय-समय पर टकराव भी होता था ,लेकिन आज स्थितियां एकदम बदल गयीं है। अब धर्म की खेती राजसत्ता खुद कर रही है। आश्रम व्यवस्था को राजसत्ता ने अपना मोहताज बना लिया है। जो सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ बोले उसे राष्ट्रद्रोह बताने की निर्मम व्यवस्था बना ली गयी है।भले ही वे अपने-अपने धर्म के सबसे बड़े आचार्य ही क्यों न हों।  धर्म बौना और राजननीति भीमकाय हो चुकी है। यानि अब लोकतंत्र गौड़ और धर्म प्रधान बनाया जा रहा है।  

धर्म सामज को जोड़ने का 'फेविकोल' होता तो दुनिया में एक ही धर्म का पालन करने वाले देश आपस में लड़ झगड़ कर बर्बाद न हो गए होते। जिन देशों में धर्म अतिवाद का शिकार हुआ है वहां अराजकता पनपी है। दूसरी तरफ जिन देशों में धर्मनिरपेक्षता है वहां विकास का रथ तेजी से दौड़ रहा है। ज्ञान-विज्ञान मनुष्यता के कल्याण और उत्कर्ष में सहायक हो रहा है। धर्म निजता का विषय है और उसमें कोई किसी का अतिक्रमण नहीं करता। यानि किसी भी देश की सत्ता का अपना कोई धर्म नहीं होता। यदि होता है तो उसकी क्या दशा- दुर्दशा होती है वो किसी से छिपी नहीं है।

भारत में दो महीने बाद आम चुनाव होना है। मुझे लगता कि धर्म की आंधी इन चुनावों को भी प्रभावित कर सकती है ,क्योंकि इस समय देश की तमाम आबादी धर्म का 'ओव्हर डोज' ले चुकी है जो ड्रग्स के नशे से भी ज्यादा घातक है। चुनाव से पहले भारत की आम आबादी को धर्म के नशे से मुक्त करने के लिए' 'ऐंटी-डोज' की जरूरत है। ये हमें अपने देश में ही विकसित करना होगा। हम जब जानलेवा कोविड का 'ऐंटी डोज' विकसित कर सकते हैं तो धर्म का 'एंटी डोज' भी विकसित किया जा सकता है। चूंकि सत्ता ये करना नहीं चाहती इसलिए सत्ता से बाहर जितने भी राजनीतिक दल हैं,संगठन ,संस्थाएं अपने यहां धर्म के 'ऐंटी-डोज' बनाने की छोटी- छोटी इकाइयां लगाएं और देश को धर्म के नशे से मुक्ति दिलाने के अभियान में शामिल  हों। नशा मुक्त देश ही लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा कर सकता है। धर्मनिरपेक्षता के रास्ते पर चलकर अपना भविष्य सुरक्षित कर सकता है। अन्यथा आगे एक गहरी और अंधी खाई है ।  
@ राकेश अचल
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