तिब्बत से निकल जाना चाहिए, सिर्फ 100 घंटे में ऐसा क्यों लगा?

[ad_1] तिब्बत का खूबसूरत नजारा (प्रतीकात्मक तस्वीर) – फोटो : Pixabay समय के साथ एक अलग तरह का गणित काम करता है। हम जितनी कम चीजें याद रखते हैं, हमारे अंदर उसकी गूंज के लिए उतनी ज्यादा जगह होती है। एक छोटी यात्रा जापानी टी हाउस के खाली कमरे की तरह हो सकती है, यदि वहां कागज के रोल The post तिब्बत से निकल जाना चाहिए, सिर्फ 100 घंटे में ऐसा क्यों लगा? first appeared on saharasamachar.com.
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तिब्बत का खूबसूरत नजारा (प्रतीकात्मक तस्वीर)
– फोटो : Pixabay

समय के साथ एक अलग तरह का गणित काम करता है। हम जितनी कम चीजें याद रखते हैं, हमारे अंदर उसकी गूंज के लिए उतनी ज्यादा जगह होती है। एक छोटी यात्रा जापानी टी हाउस के खाली कमरे की तरह हो सकती है, यदि वहां कागज के रोल के सिवा कुछ भी नहीं है तो वो कागज का रोल ही ब्रह्मांड बन जाता है।

मैंने महसूस किया है कि बाहरी यात्रा को छोटी रखकर आंतरिक यात्रा को जीवन भर के लिए जारी रखा जा सकता है। सितंबर 1985 में जब चीनी शहर चेंगदू से उड़ा मेरा विमान तिब्बत की राजधानी ल्हासा की सुनसान हवाई पट्टी पर उतर रहा था तब मैं ऐसा कुछ भी सोच-विचार नहीं कर रहा था।

मैं 20 साल का नौजवान था और मिडटाउन मैनहट्टन में 25वीं मंजिल के अपने दफ्तर से सीधे यहां चला आया था। वहां मैं टाइम मैगजीन के लिए वैश्विक मामलों पर लेख लिख रहा था। मैंने 6 महीने की छुट्टी ली थी। चीन पहुंचने के तुरंत बाद मुझे पता चला कि तिब्बत को अब विदेशियों के लिए खोल दिया गया है। ऐसा पहली बार हुआ था। 

 

 

जब मैं किशोर था तब पहली बार भारत के धर्मशाला शहर में दलाई लामा को देखने गया था। मेरे दार्शनिक पिताजी 1959 में तिब्बती नेता के निर्वासन के कुछ ही महीने बाद उनसे मिले थे। अब जबकि चीन सरकार ने तिब्बत को विदेशी सैलानियों के लिए खोल दिया था, मैं वहां जाने से खुद को नहीं रोक पाया।

मैं बाहर निकला तो हवा पतली थी और आसमान असाधारण रूप से नीला था। उड़ान से आए कुछ अन्य विदेशी घुमक्कड़ लग रहे थे। कुछ वैज्ञानिक भी थे, जिन्होंने आने का मकसद बताने से मना कर दिया। हमें एक खटारा बस की ओर ले जाया गया। जल्द ही सड़कों और नदियों के ऊपर से हिचकोले खाता ल्हासा का हमारा सफर शुरू हो गया।

सड़कों के किनारे सभ्यता के निशान नहीं के बराबर थे। गुफाओं के आगे बस छोटी-छोटी मूर्तियां थीं और पत्थरों पर बुद्ध को चमकदार रंगों से पेंट किया गया था। हम ऐसे तीर्थयात्रियों के सामने से गुजरते थे जो सैकड़ों दिनों की तीर्थयात्रा से थके दिखते थे। वे बुद्ध की मूर्तियों के आगे हाथ जोड़ते और दंडवत होकर प्रणाम करते थे।

आखिरकार हम एक टूटे-फूटे अहाते में पहुंचे तब पता चला कि जिसे ‘सिटी ऑफ द सन’ कहा जाता है, वह दरअसल बारखोर बाजार के इर्द-गिर्द बसा छोटा सा शहर है। इस शहर में सफेद चूने से पुते हुए घर थे। नीले आसमान के नीचे हर घर के आगे फूलों की क्यारियां थीं और छतों पर प्रार्थना के झंडे लगे थे।

मुझे लगता था कि मैं तिब्बत के बारे कुछ-कुछ जानता हूं। एक बार मैं 16 सहयोगियों को न्यूयॉर्क के थर्ड एवेन्यू में तिब्बती रेस्तरां की रसोई तक ले गया था। मैं उनको हिमालय की हकीकत से रूबरू कराना चाहता था, लेकिन वहां मैं जो देख रहा था उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जैसा एलेक्जांड्रा डेविड-नील की किताब ‘मैजिक एंड मिस्ट्री इन तिब्बत’ में लिखा गया है।

 

जोखांग मंदिर के सामने मुख्य चौराहे पर लोग चक्कर लगाते हुए ‘दलाई लामा दलाई लामा’ बुदबुदा रहे थे। शायद उन्हें उम्मीद होगी कोई विदेशी उनके निर्वासित नेता की प्रतिबंधित तस्वीर उनके सामने रख देगा।

सादी वर्दी में पुलिस वाले पूरे प्लाजा में यहां-वहां मंडरा रहे थे। हरी टोपी वाली खानाबदोश औरतें हर जगह दिख रही थीं। बड़े खंपा योद्धा अपने लंबे बालों में लाल धागा बांधे हुए थे। बैंगनी गाल वाले बच्चे उनके साथ मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे।

चलते-चलते वे प्रार्थनाचक्र घूमा रहे थे। ढहती इमारतों की मरम्मत कर रहे मजदूर काम करते हुए लोकगीत गा रहे थे। मैंने इस शहर से दूर एक नए होटल के बारे में पढ़ा था। मैं अपने से बड़े सूटकेस को खींचते हुए उधर की ओर चल दिया।

जब मैं वहां पहुंचा तो वह होटल कम अस्पताल ज्यादा लग रहा था। वहां के कमरे खाली थे और हर बेड के पास एक ऑक्सीजन टैंक रखा हुआ था। मैं मुड़ा और वापस चलने लगा। किसी ने भी मुझे ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी के बारे में नहीं बताया था। 

याक के चरवाहों ने चिल्लाते हुए मुझे कुछ कहा जिसे मैं समझ नहीं पाया। सड़क किनारे की दुकानों में कैसेट पर चरवाहों के गीत बज रहे थे। देहाती संगीत और एकल आवाज में वे कर्कश लग रहे थे। तिब्बत इतना अनदेखा-अनजाना था कि विदेशी उसके बारे में पहले से कुछ नहीं जानते थे।

 

आखिर में मैंने कुछ यूरोपीय लोगों को एक जगह से निकलते देखा। अंधेरे में मैं उसी अहाते में घुस गया। साइन बोर्ड पर लिखा था- बनक शोल होटल, हैपीनेस रोड। 

एक नौजवान तिब्बती, जो थोड़ी अंग्रेजी जानता था, उसने मुझे बताया कि दो डॉलर प्रति रात के किराए पर मैं एक कमरा ले सकता हूं। कमरे का मतलब था- बिना चादर का एक बड़ा गद्दा, पुआल भरा हुआ तकिया और चलने-फिरने की कोई जगह नहीं। कॉरीडोर के अंत में एक कॉमन बदबूदार टॉइलेट था और अहाते में जंग खाया एक पानी का टैप।

लकड़ी की सीढ़ी चढ़कर मैं ऊपर पहुंचा और वहां अंधेरे कमरे में अपना सूटकेस पटक दिया। मैं दोबारा बाहर निकल आया। भूलभुलैया वाली कच्ची गलियों से होते हुए मैं जोखांग पहुंचा जो कुछ ही हफ्ते पहले आगजनी में जल गया था।

 

बौद्ध भिक्षु, खानाबदोश औरतें, छोटे बच्चे और उनकी दादियां दंडवत प्रणाम कर रहे थे। वे सुबह से आधी रात तक ऐसा करते रहे। मंदिर के अंदर मोमबत्ती की धुंधली रोशनी में मैं ज्यादा कुछ नहीं देख पा रहा था, लेकिन मैंने नोटिस किया कि लोगों के आंसू बह रहे थे।

जब वे अपने पवित्र शहर की सबसे पवित्र जगह पर करुणा और ज्ञान के देवता के सामने आते थे तो उनके आंसू बाहर आ जाते थे। अगली सुबह मैंने गैंडेन की यात्रा की जो एक समय दुनिया के सबसे बड़े बौद्ध मठ में से एक था। अब यह टूटे-फूटे पत्थरों का खंडहर भर था।

लाल कपड़े पहने तीन भिक्षु वहां पिकनिक मना रहे थे। उन्होंने मुझे इशारा करके बुलाया और याक के मक्खन वाली नमकीन चाय और ब्रेड की पेशकश की। वापसी की बस में झगड़ा हो गया। तिब्बतियों के झुंड ने एक चीनी व्यक्ति को घेर लिया। यह याद दिला रहा था कि कब्जा करने वाला भी कभी-कभी परिस्थितियों का शिकार हो जाता है।

रात घिर जाने पर मैंने देखा कि ऊपर 13 मंजिला पोटला महल पर लगी बत्ती जल रही है। महल के 1,000 से अधिक कमरों में से कुछ में ही रोशनी झलक रही थी।

अगली सुबह मैं एक घंटे तक टहलने निकल गया। मैंने खानाबदोशों की झोपड़ी पार की और ऐसी जगह पहुंच गया जहां तगड़े तिब्बती लोग एक क्रूर पारंपरिक अनुष्ठान कर रहे थे। वे कुछ ही समय पहले मरे इंसान की लाश के टुकड़े कर रहे थे ताकि पारंपरिक रूप से शिकारी पक्षियों को खिला सकें।

मेरा वहां जाना एक अतिक्रमण जैसा था। उनके पवित्र अनुष्ठान के बीच एक विदेशी पहुंच गया था, फिर भी ‘आसमान में दफनाने’ के अनुष्ठान को न देखना उसे अपवित्र करने जैसा होता। दोपहर में मैं सेरा ओर ड्रेपुंग मठों में गया।मेरे प्रोफेसर पिता ने मुझे जो कहानियां सुनाई थीं वे मुझे याद आ रही थीं कि कैसे 20 हजार लोगों के सामने वे चर्चा-परिचर्चा करते थे।

अब वहां अहाते में कुछ कुत्ते बैठे हुए थे। कुछ युवा नौसिखिए भिक्षु मेरे कैमरे से खेलना चाहते थे।

तीसरे दिन मैंने पोटला महल की ओर जाने वाले आड़े-तिरछे रास्ते पर चढ़ाई की। तिब्बतियों के एक समूह के पीछे चलते हुए मैं एक अंधेरे बूथ पर पहुंचा। मैंने दो धार्मिक स्क्रॉल खरीदे जिन पर देवताओं और ब्रह्मांड की तस्वीर बनी थी।

मैं ऊपर उन कमरों में गया जहां झरोखे से सूरज की रोशनी आ रही थी। भिक्षु कोने में लाल और सुनहरे पर्दे के बीच बैठकर सूत्र पढ़ रहे थे। वहां हर मोड़ पर मूर्तियां थीं। महिलाएं भिक्षुओं से पवित्र जल लेने के लिए उनके आगे झुकती थीं। इस महल में नौ दलाई लामा रहे थे। उन सबके अवशेष यहां थे।

एक जगह मैं सफेद चूने से पुते छत पर बाहर निकल गया ताकि घाटी से लेकर पहाड़ों तक देख सकूं, जिन पर ताजा बर्फ गिरी थी। आसमान कोबाल्ट जितना नीला था। सब कुछ स्पष्ट था। मैं नहीं कह सकता कि क्यों, मैं नहीं कह सकता कि कैसे, लेकिन किसी तरह मैं वहां खड़ा रहा।

ऐसा लग रहा था जैसे मैं ‘संसार की छत’ पर नहीं बल्कि अपने अस्तित्व की छत पर हूं। पहले से अधिक स्पष्ट, पहले से अधिक मजबूत मन के साथ जिसे मैं पहले नहीं पहचानता था।

हो सकता है कि यह ल्हासा की हवा थी। हो सकता है कि यह संस्कृति का झटका था या विमान बदलने और उबड़-खाबड़ बस यात्रा की थकान थी। निश्चित रूप से मैं इस जमीन से कुछ भी विशेष महसूस नहीं करना चाहता था जहां पहुंचने में इतनी कठिनाई हुई हो।

मुझे याद आया कि कैसे ब्रिटिश सैनिक सर फ्रांसिस यंगहसबैंड, जिन्होंने 1904 की सर्दियों में यहां कत्लेआम का नेतृत्व किया था, वह ल्हासा में अपने आखिरी दोपहर लंबी सवारी के लिए निकले थे।

उन्होंने वहां जो भी महसूस किया वह इतना शक्तिशाली था कि उन्होंने सेना की वर्दी छोड़ दी। वह यूरोप लौटे और सदी के सबसे जोशीले शांतिदूत बन गए। 20 साल की उम्र में मैं सोचता था कि सिर्फ अपने विचारों और अनुभवों से खुद को परिभाषित किया जा सकता है। टाइम के पत्रकार के रूप में मैं खुद को किसी धारणा में बंधा हुआ नहीं समझता था।

लेकिन जब मैं वहां उस ऊंचाई पर स्पष्ट प्रकाश में खड़ा था तब मैंने खुद से एक वादा किया। ऐसा वादा ना मैंने पहले कभी किया था न ही बाद में किया।

मैं तिब्बत में सिर्फ 100 घंटे रहने के बाद वापस चला जाऊंगा ताकि ल्हासा में मेरा रहना मेरे दिमाग में हमेशा स्पष्ट रहे। वे दैवीय दिन थे जिसे मैं दोबारा कभी नहीं जान पाऊंगा, इसीलिए मैं जितनी जल्दी हो सके वहां से विदा होना चाहता था ताकि उस तजुर्बे को दिमाग में अलग जगह दे सकूं।

आज मैं अपनी जवानी के दिनों को सोचकर शर्मिंदा हो जाता हूं। तब फटाफट फैसला सुनाने की हड़बड़ी रहती थी, लेकिन उस क्षण मेरा अंतर्मन एकदम सच्चा था। मैंने केवल चार दिनों बाद ल्हासा छोड़ दिया था। 33 साल बाद वहां बिताया हर एक पल ऐसा लगता है मानो किसी विशाल बैंक्वेट हॉल में लगे एकमात्र कैनवस पर उकेरे गए हों।

मैं कई बार तिब्बत की राजधानी गया। मैंने वर्षों भूटान, लद्दाख और नेपाल की यात्रा की। मैंने बोलीविया और पेरू में भी उसी ऊंचाई पर कई दिन गुजारे, लेकिन मैं सही था। ल्हासा में उस पल मैंने जो महसूस किया था, वैसा दोबारा कभी महसूस नहीं किया। 

सार

  • पवित्र शहर की सबसे पवित्र जगह पर करुणा और ज्ञान के देवता के सामने आते थे तो उनके आंसू बाहर आ जाते थे।
  • रात घिर जाने पर मैंने देखा कि ऊपर 13 मंजिला पोटला महल पर लगी बत्ती जल रही है। महल के 1,000 से अधिक कमरों में से कुछ में ही रोशनी झलक रही थी।
  • वे दैवीय दिन थे जिसे मैं दोबारा कभी नहीं जान पाऊंगा।
  •  33 साल बाद वहां बिताया हर एक पल ऐसा लगता है मानो किसी विशाल बैंक्वेट हॉल में लगे एकमात्र कैनवस पर उकेरे गए हों।

विस्तार

समय के साथ एक अलग तरह का गणित काम करता है। हम जितनी कम चीजें याद रखते हैं, हमारे अंदर उसकी गूंज के लिए उतनी ज्यादा जगह होती है। एक छोटी यात्रा जापानी टी हाउस के खाली कमरे की तरह हो सकती है, यदि वहां कागज के रोल के सिवा कुछ भी नहीं है तो वो कागज का रोल ही ब्रह्मांड बन जाता है।

मैंने महसूस किया है कि बाहरी यात्रा को छोटी रखकर आंतरिक यात्रा को जीवन भर के लिए जारी रखा जा सकता है। सितंबर 1985 में जब चीनी शहर चेंगदू से उड़ा मेरा विमान तिब्बत की राजधानी ल्हासा की सुनसान हवाई पट्टी पर उतर रहा था तब मैं ऐसा कुछ भी सोच-विचार नहीं कर रहा था।

मैं 20 साल का नौजवान था और मिडटाउन मैनहट्टन में 25वीं मंजिल के अपने दफ्तर से सीधे यहां चला आया था। वहां मैं टाइम मैगजीन के लिए वैश्विक मामलों पर लेख लिख रहा था। मैंने 6 महीने की छुट्टी ली थी। चीन पहुंचने के तुरंत बाद मुझे पता चला कि तिब्बत को अब विदेशियों के लिए खोल दिया गया है। ऐसा पहली बार हुआ था। 

 

 


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