राष्ट्रभक्ति की आंचल में राष्ट्रपुरुष का निर्माण।

प्रभात झा दिल्ली – डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक ऐसे धर्मनिष्ठ, न्यायप्रिय और राष्ट्रभक्त माता-पिता की संतान थे, जिनकी प्रसिद्धि न केवल बंगाल बल्कि सम्पूर्ण भारत में थी। धर्म एवं संस्कृति के प्रति आदर तथा राष्ट्रीयता की प्रेरणा उन्हें अपने माता-पिता से मिली थी। अपनी मां योगमाया देवी से धार्मिक एवं ऐतिहासिक कथाएं सुन-सुनकर जहां The post राष्ट्रभक्ति की आंचल में राष्ट्रपुरुष का निर्माण। first appeared on saharasamachar.com.
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राष्ट्रभक्ति की आंचल में राष्ट्रपुरुष का निर्माण।

प्रभात झा

दिल्ली – डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक ऐसे धर्मनिष्ठ, न्यायप्रिय और राष्ट्रभक्त माता-पिता की संतान थे, जिनकी प्रसिद्धि न केवल बंगाल बल्कि सम्पूर्ण भारत में थी। धर्म एवं संस्कृति के प्रति आदर तथा राष्ट्रीयता की प्रेरणा उन्हें अपने माता-पिता से मिली थी। अपनी मां योगमाया देवी से धार्मिक एवं ऐतिहासिक कथाएं सुन-सुनकर जहां देश और संस्कृति की जानकारी प्राप्त की, वहीं अपने पिता आशुतोष मुख़र्जी के साथ बैठकर राष्ट्रभक्ति की शिक्षा को आत्मसात किया।

आत्मबोध की दिशा में दृढ़ता के साथ आगे बढ़ते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने शिक्षा, राजनीति, समाज-संस्कृति सभी क्षेत्रों में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1929 में बंगाल विधान परिषद के सदस्य बने, 1934 से 1938 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय के सबसे कम उम्र के उप-कुलपति रहे, अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी निर्वाचित हुए, बंगाल प्रांत के वित्त मंत्री रहे, महाबोधि सोसाइटी एवं रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के अध्यक्ष रहे, संविधान सभा के सदस्य बने, स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में मंत्री बने, 1952 के पहले आम चुनाव में दक्षिण कलकत्ता संसदीय क्षेत्र से लोकसभा सांसद भी बने। लेकिन राष्ट्रपुरुष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का संकल्प था, कि भारत एक मजबूत एकीकृत राष्ट्र बने और इस अभियान को सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। आप तनिक चिंतन करें, पहले भारत के नेता कैसे होते थे, उसका अनुपम उदाहरण भारतीय राजनीति में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी हैं।

मां भारती के सच्चे सपूत ने विभाजन का विरोध किया।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारत का विभाजन नहीं होने देना चाहते थे। इसके लिए वे महात्मा गांधी के पास भी गये थे। परंतु गांधी जी का कहना था, कि कांग्रेस के लोग उनकी बात सुनते ही नहीं। जवाहर लाल नेहरू भी विभाजन के पक्ष में थे। जब देश का विभाजन अनिवार्य जैसा हो गया, डॉ. मुखर्जी ने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिंदुओं के हितों की उपेक्षा न हो। उन्होंने बंगाल के विभाजन के लिए जोरदार प्रयास किया, जिससे मुस्लिम लीग का पूरा प्रांत हड़पने का मंसूबा सफल नहीं हो सका। उनके प्रयत्नों से हिंदुओं के हितों की रक्षा तो हुई ही, कलकत्ता बंदरगाह भी पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) को सौंपे जाने से बच गया। पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत आ रहे हिंदुओं की दुर्दशा से वे विचलित थे। उन्होंने विस्थापितों के बीच रहकर उनको लाभान्वित करने वाली योजनाओं की पहल की।

नेहरू द्वारा विस्थापितों के प्रति उपेक्षा और राष्ट्र हितों के प्रति प्रतिबद्धता के कारण उन्होंने अंततः 8 अप्रैल 1950 को नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया, जिसमें वे 1947 में गांधीजी के निमंत्रण पर शामिल हुए थे। डॉ. मुखर्जी ने अनुभव किया कि नेहरू पाकिस्तान सरकार के प्रति बहुत ज्यादा नरम रवैया रखे हुए हैं और उनमें पश्चिमी (वर्तमान पाकिस्तान) और पूर्वी पाकिस्तान
(वर्तमान बांग्लादेश) में छूट गए हिंदुओं के हितों की रक्षा सुनिश्चित करने का कोई साहस नहीं है। उनका स्पष्ट मानना था कि नेहरू-लियाकत समझौता निर्थक था, क्योकि इसमें भारत सरकार पर तो अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी डाली गई थी, लेकिन पाकिस्तान की ओर से ऐसे ही आचरण की कोई पहल नहीं की गई थी। त्यागपत्र देने के बाद डॉ. मुखर्जी ने संसद में प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने का निश्चय किया। इस उद्देश्य से वे प्रतिपक्ष राजनीतिक मंच के गठन की संभावनाओं को तलाशने की ओर अग्रसर हुए। 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ का गठन हुआ जिसके वे संस्थापक अध्यक्ष बने। डॉ. मुखर्जी ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा था ‘आज भारतीय जनसंघ के रूप में एक नए अखिल भारतीय राजनीतिक दल का उदय हो रहा है जो देश का प्रमुख प्रतिपक्षी दल होगा।

यद्यपि भारत अद्वितीय विविधताओं का देश है, तो भी इस बात की परम् आवश्यकता है, कि मातृभूमि के प्रति गहरी भक्ति भावना और निष्ठा की चेतना में से विकसित होने वाला बंधुत्व भाव और विवेक समस्त देशवासियों को एक सूत्र में बांधे।’ हम सभी को ज्ञात है कि डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी उस समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के द्वितीय सरसंघ चालक परमपूज्य माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरूजी) से भेंट की और उनसे आग्रह कर भारतीय जनसंघ की स्थापना की। गुरूजी ने डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को उसी समय अपने आठ प्रचारकों को भारतीय जनसंघ का कार्य प्रारंभ करने के लिए मुक्त किया था। यही से जनसंघ का कार्य प्रारंभ हुआ।

आई विल क्रश दिस क्रशिंग मेंटालिटी।

देश में पहला आम चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक हुआ। भारतीय जनसंघ को तीन सीटें मिली। डॉ. मुखर्जी भी दक्षिण कलकत्ता संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीत कर लोकसभा में आए। यद्यपि उन्हें विपक्ष के नेता का दर्जा नहीं था लेकिन वे संसद में डेमोक्रेटिक एलायन्स के नेता थे। सदन में नेहरू की नीतियों पर तीखा प्रहार करते थे। सदन में बहस के दौरान नेहरू ने एक बार डॉ. मुखर्जी की तरफ इशारा करते हुए कहा था, ‘जनसंघ एक कम्यूनल पार्टी है, आई विल क्रश जनसंघ।’ इस पर डॉ. मुखर्जी ने जवाब देते हुए कहा, ‘माय फ्रेंड पंडित जवाहर लाल नेहरू सेज देट ही विल क्रश जनसंघ, आई से आई विल क्रश दिस क्रशिंग मेंटालिटी।’ संसद में संख्या की दृष्टि से थोड़े होते हुए उनका इतना प्रभाव था, कि चाहे कश्मीर पर चर्चा हो या कोई और विषय हो, उनके भाषण को सब पूरे ध्यान से सुनते थे। उनके इस दृढ़ता और समर्पण का ही परिणाम है कि आज देश में उन सिद्धांतों पर चलने वाली नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र की बहुमत वाली सरकार है, जो नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह सरकार तक के इतिहास की गलतियों को ठीक करते हुए राष्ट्रहित और जनहित में फैसले ले रही है।

संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर,अपना जीवन बलिदान कर दूंगा

जिस समय संविधान सभा में धारा 370 पर विचार-विमर्श हो रहा था, शेख अब्दुल्ला की बात मानकर जवाहरलाल नेहरू स्वयं विदेश चले गए। यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया। नेहरू मंत्रिमंडल में बिना विभाग के मंत्री रहे गोपालस्वामी अयंगर, जो जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह के दीवान रहे थे, को नेहरू खासतौर पर जम्मू-कश्मीर के लिए ही कैबिनेट में लाए थे। विदेश जाने से पहले यह जिम्मेदारी नेहरू ने अयंगर को देकर गए थे। धारा 370 का प्रावधान कांग्रेस संसदीय दल के समक्ष आया और वहां भी विरोध हुआ। घबराये अयंगर सरदार पटेल के पास पहुंचे। उन्होंने भी इसे अस्वीकार कर दिया। लेकिन अस्थायी व्यवस्था की गई। सरदार पटेल का कहना था नेहरू होते तो इसे ठीक कर देता लेकिन अभी तो मानना होगा। सरदार पटेल का असामयिक दुनिया से चला जाना दुर्भाग्यपूर्ण रहा। धारा 370 के कारण कश्मीर की समस्या भले ही बाद में लोगों को दिखाई दी हो, डॉ. मुखर्जी उसकी गंभीरता को आरंभ में ही समझ गए थे। लोकसभा में 1952 के उनके भाषण अगर देखे जाएं तो साफ़ हो जाएगा कि बाद में कश्मीर में जो कुछ हुआ, आतंकवाद और हिंदुओं के साथ अत्याचार एवं पलायन, उन्होंने तब देख लिया था।

जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की पृथकतावादी राजनीतिक गतिविधियों से उभरी अलगाववादी प्रवृतियां 1952 तक बल पकड़ने लगी थीं। इससे राष्ट्रीय मानस विक्षुब्ध हो उठा था। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने प्रजा परिषद के सत्याग्रह को पूर्ण समर्थन दिया जिसका उद्देश्य जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना था। समर्थन में उन्होंने जोरदार नारा बुलंद किया था -‘एक देश में दो निशान, एक देश में दो विधान, एक देश में दो प्रधान, नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे।’ अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त करते हुए कहा ‘या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।

26 जून 1952 को संसद में दिए अपने ऐतिहासिक भाषण में डॉ. मुखर्जी ने धारा 370 को समाप्त करने की जोरदार वकालत की थी, और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरासर गलत नीतियों को निर्भयता पूर्वक बेनकाब किया था। उन्होंने कहा था ‘क्या जम्मू-कश्मीर के लोग उन मूलभूत अधिकारों के हकदार नहीं है जिन्हें हमने जम्मू-कश्मीर को छोड़ सारे भारत के लोगों को दिया है? शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का शहंशाह किसने बनाया है? जबकि विलय भारतीय सेनाओं के कश्मीर में प्रवेश करने के कारण ही सम्भव हो सका। क्या यह इसलिए किया गया था, कि एक संप्रभु गणतंत्र के अंतर्गत एक और संप्रभु गणतंत्र का निर्माण हो? विभिन्न संगठक इकाईयों के लिए न तो अलग-अलग संविधानों की जरुरत है और न ही इन इकाईयों में भेदभाव जरुरी है।”

अपने संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने नई दिल्ली में नेहरू सरकार और श्रीनगर में शेख अब्दुल्ला की सरकार को चुनौती देने का निश्चय किया। मई 1953 में जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। उनका उद्देश्य वहां जाकर स्थिति का अध्ययन करना था। उन दिनों जम्मू-कश्मीर में प्रवेश के लिए परमिट लेना पड़ता था। लेकिन उन्होंने बिना परमिट जम्मू-कश्मीर राज्य में प्रवेश करने का निर्णय लिया। उन्होंने संप्रभु गणतंत्र भारत के अंदर दूसरे संप्रभु गणतंत्र के अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया। बिना परमिट के कश्मीर में प्रवेश करने से पहले उन्होंने कहा था ‘विधान लूंगा या अपने प्राण दूंगा।’ जब उनसे परमिट मांगा गया तो उन्होंने कहा ‘मैं भारत की संसद का सदस्य हूं, मैं अपने ही देश में कश्मीर में परमिट लेकर नहीं जाऊंगा।’ उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया गया। 40 दिन तक न उन्हें चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई गई और न अन्य बुनियादी सुविधाएं दी गई। 23 जून 1953 को उनकी रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। अपने संकल्प को साकार करने के लिए डॉ. मुखर्जी ने भारत माता के चरणों पर अपने जीवन को न्यौछावर कर दिया।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जो उनके साथ कश्मीर गए थे, ने लिखा है ‘जब उनकी मृत्यु हो गई तो मुझे लगा कि डॉ. मुखर्जी कह रहे हैं, आसमान से उनकी आत्मा कह रही है कि-लुक आई हेव कम आउट ऑफ़ द स्टेट ऑफ़ जम्मू एंड कश्मीर, दो एज ए मारटीयर, वो मुझे बंद नहीं रख सके।’ अटल जी ने यहीं प्रण किया कि वे डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सपनों को साकार करनें में अपना पूरा जीवन समर्पित करेंगे। यह बलिदान स्वतंत्र भारत का ऐसा पहला बलिदान था जिसने देश में राष्ट्रीय एकता और अखंडता के संघर्ष की नींव रखी। कलकत्ता में उनके अंतिम संस्कार में 2 लाख से अधिक लोग श्रद्धांजलि देने एकत्रित हुए। युवा, वृद्ध सभी उनकी अंतिम यात्रा का हिस्सा बनने के लिए सड़कों पर उतर आये। डॉ. मुखर्जी का संकल्प राष्ट्र का संकल्प बन गया। उनका बलिदान राष्ट्र के जन-जन के लिए धारा 370 की समाप्ति का प्रण बन गया।

राष्ट्र के इतिहास में विरले ही ऐसे क्षण होते हैं जब एक अद्भुत निर्णय से इतिहास की धारा और राष्ट्र की यात्रा एक नई ऊर्जा और आत्मविश्वास से अनुप्राणित हो उठती है। 5 अगस्त 2019 का क्षण वैसा ही था जब जम्मू-कश्मीर और भारत के बीच विभाजक-रेखा खींचने वाली संविधान की धारा 370 को संसद के दोनों सदनों के एक स्वरीय अनुमोदन से समाप्त कर दिया गया। जो काम पिछले 70 वर्षों में नहीं हुआ, अपने दूसरे कार्यकाल के 70 दिनों के भीतर नरेंद्र मोदी सरकार ने कर दिखाया। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार ने साबित किया कि राष्ट्रीय एकता और अखंडता सर्वोपरि है। राष्ट्रीय एकता के धरातल पर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख सहित भारत ने एक सुनहरे भविष्य की नींव रखी है। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी जम्मू-कश्मीर की लड़ाई लड़ने वाले पहले भारतीय थे, जिन्होंने अपना बलिदान दिया था। ‘एक विधान, एक निशान और एक प्रधान’ का नारा देते हुए 23 जून 1953 को उन्होंने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। देश में 23 जून को ‘एक प्रधान, एक विधान और एक निशान’ दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए। इससे डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को हर वर्ष उनके बलिदान दिवस पर राष्ट्र उन्हें याद तो करेगा ही, देश में राष्ट्रीय एकता और अखंडता की भावना बलवती होगी। मां भारती के चरणों पर अपना जीवन अर्पण कर देने वाले इस महानतम और सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रभक्त के लिए इससे बेहतर श्रद्धांजलि नहीं हो सकती।

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